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बेटियों को खुले विचारों की उन्मुक्त उड़ान दीजिए

लक्ष्मीकांता चावला

कर्नाटक के एक स्कूल में हिजाब को यूनिफार्म का हिस्सा मानने से इनकार करने पर विवाद उठा तो राजनीतिक दलों को वोट की राजनीति करने का मौका मिल गया। इसे कहते हैं बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना। निस्संदेह यह विषय तो शिक्षा क्षेत्र का था-विद्यार्थी क्या चाहते हैं, स्कूल प्रबंधन ने क्या तय किया और हिजाब पहनने वाले माता-पिता की राय क्या है, पर पांच राज्यों के चुनाव के बीच राजनेता कैसे चुप रहते? कर्नाटक से निकलकर हिजाब से लाभ उठाने का मुद्दा पूरे देश में फैल गया।?बयानबाजी भी शुरू हो गई। धर्मगुरु भी इसमें पीछे नहीं रहे।

अफसोस तो यह है कि जिस कांग्रेस की एक वरिष्ठ नेता ‘लडक़ी हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा लिये यूपी से लेकर पंजाब तक घूम रही हैं, उसी कांग्रेस के कर्नाटक के प्रधान जमीर अहमद ने यह घोषणा की कि बच्चियों की सुंदरता को छिपाकर रखने के लिए बुर्का, हिजाब जरूरी हैं। इसके साथ उन्होंने बहुत कुछ ऐसा कहा जो न महिलाओं के सम्मान को बढ़ाने वाले वक्तव्य हैं और न ही पार्टी के। आज हमारा देश, हमारा समाज उस मध्ययुगीन काल में नहीं है जब विदेशी आक्रांता आकर हमारी बहू-बेटियों से क्रूरता करते थे और उन्हें लूट का मामला समझकर ले जाते थे। घूंघट या बुर्का उसी वातावरण में पैदा हुए जब विदेशियों से देश जूझ भी रहा था और समाज त्रस्त भी था। मेरा एक प्रश्न जमीर साहब से है कि क्या उन्हें ऐसा लगता है कि लडक़ी की सुंदरता को देखकर कुछ पुरुष गिद्ध झपट लेंगे। अगर यह सच भी है तो कुछ पथभ्रष्टों के अनाचार के कारण सारी महिलाओं को क्यों आवरण दिया जाये। निस्संदेह जो अनैतिक लोग हैं, उन्हें कानूनन सजा दी जाए।

मैं यह मानती हूं कि बुर्का और घूंघट दोनों ही महिलाओं के साथ अन्याय हैं। भले ही इसके लिये सामाजिक, सांस्कृतिक तर्क दिये जाएं और धर्म का सहारा लिया जाये। एक बार पुन: मैं यह कहती हूं कि विदेशी मुस्लिम आक्रमणों से पहले देश में न बुर्का था, न घूंघट। हमारे देश की बेटियां महारानी झांसी, महारानी कर्मावती, जवाहर बाई, चन्ना मां किसी घूंघट में बंद होकर शत्रुओं से लोहा नहीं लेती रहीं। युगों पहले तक स्वयंवर की प्रथा इस देश में थी। सैकड़ों वीर समर्थ पुरुष, राजा पंक्तिबद्ध सामाजिक अनुशासन में बैठते थे। उनमें से एक पुरुष को पति के रूप में चुनकर जयमाला डालने का केवल हमारे देश में ही प्रचलन था। यह स्वयंवर बुर्के और घूंघट में नहीं होता था।

आज प्रश्न केवल हिजाब का नहीं, प्रश्न यह है कि बहुत-सी लड़कियां, कुछ धर्म के ठेकेदारों से प्रभावित, इन बंधनों की वकालत करने के लिए सडक़ों पर आ जाती हैं। वर्षों पहले राजा राममोहन राय जी ने जब सती प्रथा बंद करवाई थी, उस समय भी हमारे समाज के एक भाग ने विरोध किया था। आज 21वीं शताब्दी में भी जब लड़कियां हिजाब या शबरीमाल मंदिर में महिलाओं को प्रवेश न देने के समर्थन में निकलती हैं तो बहुत अफसोस होता है। उनकी मानसिकता अभी भी उनसे प्रभावित है जो महिलाओं को बेडिय़ों में बांधकर रखना चाहते हैं। शायद मन ही मन उनकी उन्नति से आहत भी होंगे।

सत्य यह है कि जब तक पीडि़त अपनी पीड़ा से मुक्ति नहीं चाहता तब तक कानून और राजनीति कुछ नहीं कर सकती। वर्तमान केंद्रीय सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक और हलाला से मुक्ति दिलाई। यह स्वीकार करना होगा कि भारत सरकार का तीन तलाक बंद करने वाला कानून उस बल से ही पारित हुआ जो शक्ति लाखों मुस्लिम महिलाओं ने आगे बढक़र तीन तलाक के विरुद्ध आवाज उठाकर दी थी। अभी पुरानी बात नहीं जब शिगनापुर श्रीशनि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध एक महिला के नेतृत्व में ही आंदोलन हुआ और सफल भी हुआ। बात हिजाब की हो, घूंघट की हो या फिर मंदिर या मस्जिद में किसी बंधन की, जो इन असंवैधानिक आदेशों से प्रभावित हैं जब तक वे आगे नहीं आएंगे तब तक मुक्ति भी नहीं मिलेगी।

जो घूंघट के प्रबल समर्थक हैं वे उन महिलाओं को देखें जो लंबा घूंघट निकालकर सडक़ों पर मजदूरी करती हैं, बच्चा गोद में उठाकर सिर पर पानी के तीन-तीन घड़े उठाकर काम कर रही हैं, और भी बहुत कुछ। याद रखिए घायल की गति घायल जानता है, उपदेश देने वाले नहीं। आज उस मानसिकता को बदलना होगा, जिसमें एक घूंघट समर्थक और एक बुर्का समर्थक यह कहता है कि औरत और दौलत दोनों को ढक कर रखना चाहिए। हमारे देश की संस्कृति तो यह है कि दौलत घर में बढ़ जाए तो दोनों हाथों से बांटिए, ढक कर नहीं रखिए। महिलाएं घर में बंद रखी गईं तो आधा समाज पक्षाघात का शिकार होकर क्षीण-दीन हो जाएगा। भारत की बेटी सिंहवाहिनी है। 1400 वर्ष पहले तक जब महिलाओं पर इस तरह के प्रतिबंध नहीं थे, तब भी हम दुनिया में भारती मिश्र की तरह शास्त्रार्थ करती थीं। वेद मंत्रों की रचयिता थीं और अपने बच्चों को शेरों के साथ खिलाती थीं।

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