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मुआवजे पर टालमटोल

यह विडंबना ही कही जायेगी कि महामारी में अपनों को खोने की टीस के बीच लोगों को बेहद नाममात्र के मुआवजे हेतु सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। यह तार्किक ही है कि देश की शीर्ष अदालत को पिछली कई बार की तरह राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए सख्त टिप्पणी करनी पड़ी। पहली बात तो ऐसे मामलों के प्रति शासन-प्रशासन को संवेदनशील व्यवहार दिखाना चाहिए था और पीडि़तों को कोर्ट जाने की जरूरत ही नहीं पडऩी चाहिए थी।

न्यायमूर्ति एमआर शाह व न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने इस मामले में बिहार व आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिवों को तलब करके चेताया है कि क्यों न उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जाये। अजीब तमाशा है कि पहले कोर्ट मुआवजा देने को कहता है तो सत्ताधीश इसे देने में असमर्थता जताते हैं। फिर कोर्ट पचास हजार रुपये मात्र की राशि तय करता है तो उसे देने में टालमटोल की जा रही है। सरकारों के लिये यह राहत की बात होनी चाहिए कि उन्हें सिर्फ मृतकों के आश्रितों को ही मुआवजा देना पड़ रहा है। वैसे तो देश के करोड़ों लोगों ने करोड़ों रुपये खर्च करके अपने परिजनों का इलाज कराया, जो कालांतर ठीक हो गये।

निजी अस्पतालों ने जिस तरह इस आपदा में अवसर तलाशा और लाखों के फर्जी बिल बनाये, उसके लिये मुआवजा देने की बात होती तो तब क्या होता। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि तमाम राज्यों में मृतकों के आंकड़ों को लेकर विसंगतियां सामने आ रही हैं। कुछ राज्यों में मृतकों की संख्या कम दर्ज है और दावेदारों की संख्या ज्यादा है। कुछ राज्य ऐसे हैं जहां मृतकों की संख्या ज्यादा है और दावेदार कम हैं। दोनों ही स्थितियां संदेह पैदा करती हैं। कहीं न कहीं प्रशासन मौत के सही आंकड़े दर्ज करने में चूका है। कह सकते हैं कि तंत्र ने अपनी नाकामी छिपाने के लिये सही आंकड़े दर्ज ही नहीं किये। यह स्थिति भी चिंताजनक है कि जब कोरोना महामारी से मरने वालों के आंकड़ों पर शोध किया जायेगा, तो सही तस्वीर सामने नहीं आयेगी।

बहरहाल, यह तय है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकारें लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की कसौटी पर खरी नहीं उतरी हैं। दूसरी लहर के दौरान चिकित्सा सुविधाओं के अभाव व ऑक्सीजन संकट के चलते दम तोड़ते लोगों को दुनिया ने देखा। मीडिया में लगातार इस बात की खबरें तैरती रही हैं कि मरने वालों के वास्तविक आंकड़े सामने नहीं आ रहे हैं। राज्यों द्वारा मरने वालों के आंकड़े और मुआवजा मांगने वाले लोगों के आंकड़ों में विसंगति इस बात की पुष्टि करती है। लेकिन यह बात चौंकाने वाली है कि कुछ राज्यों में मरने वालों की संख्या ज्यादा है और दावेदार कम हैं। कई राज्यों में दावेदारों व मृतकों के आंकड़ों का फर्क दुगने से लेकर सात-आठ गुना तक है जो हमारे तंत्र की पारदर्शिता को बेनकाब करता है।

निस्संदेह, यदि राज्य सरकारों ने मृतकों के आंकड़ों को दुरुस्त किया होता तो आज इस तरह की परेशानी सामने नहीं आती। यह बात जरूर है कि बाद में शीर्ष अदालत ने मृतकों के आंकड़ों के मानकों में परिवर्तन करते हुए उन लोगों को भी मुआवजे का हकदार माना था जो कोरोना संक्रमित होने के एक माह बाद मर गये, चाहे वजह दूसरी बीमारी क्यों न हो। वहीं संक्रमितों द्वारा आत्महत्या करने वालों को भी कोर्ट ने मुआवजे का हकदार माना। बहरहाल, इसके बावजूद शासन-प्रशासन की नेकनीयती पर सवाल तो उठते ही हैं कि पहले से मुसीबत के मारों की मुसीबत में इजाफा ही किया जा रहा है।

यहां यह भी सवाल उठता है कि क्यों लोक कल्याण से जुड़े सामान्य मामलों में कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ता है। अदालतें पहले ही महत्वपूर्ण मामलों के बोझ से दबी पड़ी हैं और ऐसे मामलों के सामने आने से कोर्ट का कीमती वक्त बर्बाद होता है। मृतकों व मुआवजे के आंकड़ों में विसंगति को देखते हुए एक बात तो साफ है कि महामारी व आपदाओं में मरने वाले लोगों की मौत दर्ज करने के लिये देश में पारदर्शी तंत्र की स्थापना सख्त जरूरी है।

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