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सुप्रीम कोर्ट : विधायिका कभी राजनीति से अपराधीकरण को मुक्त नहीं करेगी

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि हमें यकीन है कि विधायिका कभी राजनीति से अपराधीकरण को मुक्त नहीं करेगी। हम इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि निकट भविष्य में नहीं, बल्कि भविष्य में कभी वह ऐसा नहीं करेगी।

शीर्ष अदालत ने इस बात पर अफसोस जताया कि किसी भी पार्टी को न तो राजनीति को अपराध से मुक्त करने के लिए कानून बनाने में और न ही उन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने में दिलचस्पी है, जिनके खिलाफ गंभीर अपराधों में अदालत ने आरोप तय किए हैं। शीर्ष अदालत ने कहा है कि इस मामले में सभी राजनीतिक दलों में विविधता में एकता है।

जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने कहा है कि सरकार की विधायी शाखा कानून लाने पर कोई कदम उठाने में दिलचस्पी नहीं ले रही है।

हालांकि, अब तक कुछ भी नहीं किया गया है और किसी भी पार्टी द्वारा कभी भी कुछ नहीं किया जाएगा। शीर्ष अदालत ने अवमानना के इस मामले में भाजपा, कांग्रेस, बसपा, लोजपा, माकपा और राकांपा सहित विभिन्न पक्षों के वकीलों को भी सुना।सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में आदेश देने के लिए अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है।

दरअसल, पीठ वकील ब्रजेश सिंह द्वारा दायर एक अवमानना याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा फरवरी, 2020 में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की जानबूझकर पालन नहीं करने का आरोप लगाया गया है।

फरवरी, 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी का व्यापक प्रकाशन करने के आदेश दिया था। सिंह का कहना है कि कई पार्टियां अपने उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास के ब्योरे को सार्वजनिक करने में विफल रही हैं।

बिहार चुनाव में थे 427 दागी उम्मीदवार
चुनाव आयोग की ओर से पेश वरिष्ठ वकील विकास सिंह ने पीठ को बताया कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले 427 उम्मीदवार थे, जिन्होंने 2020 में बिहार में विधानसभा चुनाव लड़ा था। राजद 104 दागी उम्मीदवारों के साथ सूची में सबसे ऊपर है, उसके बाद भाजपा है जिसने ऐसे 77 उम्मीदवार खड़े किए थे।

सिंह ने बताया कि फरवरी में शीर्ष अदालत के फैसले के बाद, चुनाव आयोग ने छह मार्च को सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को पत्र लिखकर स्पष्ट किया था कि अदालत के आदेशों का पालन करने में विफलता को चुनाव चिह्न (आरक्षण व आवंटन) आदेश, 1968 के अनुच्छेद 16 ए का उल्लंघन माना जाएगा, जिसके तहत किसी पार्टी के चुनाव चिह्न को निलंबित या वापस लिया जा सकता है।

आयोग को मिले प्रत्याशी को प्रतिबंधित करने का हक: सिब्बल
एनसीपी की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि भारत जैसे देश में पंचायत चुनाव भी पार्टी के चुनाव चिह्न पर चलते हैं। उन्होंने सवाल किया कि क्या किसी राष्ट्रीय पार्टी का चुनाव चिह्न रद्द कर देना चाहिए ,क्योंकि राज्य या पंचायत स्तर पर निर्देशों का पालन नहीं किया गया है?

सिब्बल ने कहा, शीर्ष अदालत को अनुच्छेद- 324 के तहत चुनाव आयोग को किसी भी उम्मीदवार को प्रतिबंधित करने के लिए अधिकृत करना चाहिए, जिसके खिलाफ सात साल से अधिक की कैद वाले अपराधों के आरोप तय किए गए हों।

पीठ ने कहा, हम सुझावों पर करेंगे विचार
लेकिन पीठ ने कहा कि पांच जजों की पीठ ने 2019 में स्पष्ट किया था कि एक सांविधानिक अदालत इस तरह के निर्देश जारी नहीं कर सकती, क्योंकि संविधान या किसी क़ानून में इस तरह की मंजूरी का कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि, पीठ ने सिब्बल से कहा कि हम निश्चित रूप से आपके सुझाव पर विचार करेंगे। हम देखेंगे कि हम 2019 के फैसले के मानदंडों के भीतर क्या किया जा सकता है।

चुनाव चिह्न का निलंबन अंतिम उपाय हो: साल्वे
वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि चुनाव चिह्न का निलंबन अंतिम उपाय होना चाहिए। अगर चुनाव चिह्न को छीन लिया जाएगा तो राजनीति के अखाडे़ से कई राजनीतिक दल बाहर हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि उम्मीदवारों को चुनने में जीत हमेशा मुख्य मानदंड होती है और इसलिए मतदाताओं को इसे समझना होगा और उन्हे अस्वीकार करना होगा।

 

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