चूक या लापरवाही
निस्संदेह, यह गंभीर चिंता की बात ही कही जायेगी कि कार्यपालिका के शीर्ष व्यक्ति का काफिला बीस मिनट तक एक ओवरब्रिज पर बंधक जैसी स्थिति में खड़ा रहे। इसे सिर्फ चूक नहीं बल्कि गंभीर लापरवाही ही कहा जायेगा कि लगातार भारत विरोधी गतिविधियों में दशकों से लिप्त रहने वाले देश की सीमा से कुछ किलोमीटर दूरी पर प्रधानमंत्री का काफिला असहाय जैसी स्थिति में नजर आये। साथ ही वे पूर्व निर्धारित रैली में भाग लिये बिना वापस लौट जायें। निस्संदेह, बुधवार को बठिंडा से राष्ट्रीय शहीद स्मारक के लिये निकले प्रधानमंत्री के काफिले के रूट की जानकारी पंजाब सरकार व पुलिस को रही होगी। बताया जाता है कि बारिश व कम दृश्यता के चलते प्रधानमंत्री ने सडक़ मार्ग से जाने का फैसला लिया था।
सवाल यह कि जब विरोध करने वाले किसान इतने कम समय में विरोध के लिये जुट सकते हैं तो पुलिस इस बाबत जानकारी क्यों नहीं जुटा पायी। फिर जानकारी प्रधानमंत्री के काफिले के सुरक्षा अधिकारियों को क्यों नहीं दी गई। राजनीतिक विरोध अपनी जगह होता है लेकिन देश के शीर्ष नेतृत्व की सुरक्षा से कदापि समझौता नहीं किया जा सकता। खासकर पंजाब जैसे राज्य में जहां विगत में अशांति का लंबा दौर चला हो, वहां देश के विशिष्ट लोगों की सुरक्षा में कतई कोताही नहीं बरती जा सकती। एक साल चले किसान आंदोलन में किसानों ने संयम व शांतिपूर्ण व्यवहार का ही प्रदर्शन किया। कमोबेश उनकी सभी मांगें मान भी ली गईं, फिर इस तरह से प्रधानमंत्री का रास्ता रोकना गरिमामय व तार्किक नहीं लगता। मामले में गृह मंत्रालय ने भी रिपोर्ट मांगी है और जवाबदेही तय करने की बात कही है। जैसा कि तय था, इस मुद्दे पर राजनीति होनी ही थी। जहां इस मुद्दे पर भाजपा आक्रामक नजर आ रही है और राज्य की कांग्रेस सरकार को कठघरे में खड़ा कर रही है वहीं कांग्रेस फिरोजपुर रैली में भीड़ न जुटने की बात कहकर प्रधानमंत्री के वापस लौटने की बात कर रही है।
एक ओर जहां पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब की कांग्रेस सरकार को चूक का दोषी बताते हुए राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग कर रहे हैं, वहीं कुछ कांग्रेसी नेता भी घटना को गलत मान रहे हैं। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सुनील जाखड़ ने बुधवार की घटना को पंजाबियत के खिलाफ बताया। कहा कि यदि प्रधानमंत्री राजनीतिक रैली को संबोधित करने वाले थे तो सुरक्षित रास्ता सुनिश्चित किया जाना चाहिए था। यही लोकतांत्रिक परंपरा की दरकार भी है। निस्संदेह इस चूक के कारणों की पड़ताल होनी चाहिए। विगत में हमने ऐसी चूक के चलते एक प्रधानमंत्री व एक पूर्व प्रधानमंत्री को खोया है। ऐसे में एक राज्य जहां पड़ोसी देश की विध्वंसक गतिविधियां लगातार चलती रहती हैं, वहां हमें विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं करना चाहिए। निस्संदेह, घटनाक्रम का सच सामने आना ही चाहिए। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से राष्ट्रपति भवन में मुलाकात की और पंजाब दौरे के दौरान सुरक्षा चूक के बाबत जानकारी दी। राष्ट्रपति ने भी गंभीर चूक पर चिंता जतायी। साथ ही उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात करके मामले में फिक्र का जिक्र किया। इससे पहले प्रधानमंत्री भी कह चुके हैं कि कैसे पंजाब पुलिस व खुफिया विभाग को उस रास्ते की स्थिति की जानकारी नहीं थी, जिससे काफिला गुजरना था। अगर किसान धरना दे रहे थे तो उन्हें हटाया क्यों नहीं गया। साथ ही काफिले के सुरक्षा अधिकारियों को इसकी जानकारी क्यों नहीं दी गई। सवाल यह भी कि काफिले का मार्ग बदलने की सूचना तत्काल आंदोलनकारियों को कैसे मिली। इतनी जल्दी वे इतनी बड़ी तादाद में कैसे एकत्र हो गये। वहीं सुरक्षा जानकार भी मान रहे हैं कि पाकिस्तान बॉर्डर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर प्रधानमंत्री का एक जगह पंद्रह-बीस मिनट फंसे रहना खतरनाक हो सकता था। निस्संदेह, प्रधानमंत्री की सुरक्षा की जिम्मेदारी एसपीजी की होती है, लेकिन पूरी जिम्मेदारी राज्य सरकार की भी बनती है। वैसे भी सुरक्षा कारणों से विशिष्ट लोगों के रूट तो अचानक बदले भी जाते हैं और तत्काल सुरक्षा की तैयारी भी की जाती है।