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रिजर्व बैंक की ऐसी मेहरबानी क्यों?

अजीत द्विवेदी
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 29 मार्च 2023 को एक प्रेस कांफ्रेंस में पूछे गए सवाल के जवाब में बताया था कि पिछले पांच साल में यानी 2017 से 2022 के बीच भारत के सरकारी बैंकों ने 7.34 लाख करोड़ रुपए की राशि बट्टे खाते में डाली है यानी राइट ऑफ किया है। इसमें से सिर्फ 14 फीसदी यानी 1.03 लाख करोड़ रुपए की राशि की वसूली हो पाई है और 6.31 लाख करोड़ रुपए की राशि अब भी फंसी हुई है। बैंक द्वारा अपने किसी कर्ज को बट्टे खाते में डालने का मतलब होता है कि इसे भूल जाएं, इसकी वसूली मुश्किल है। वित्त मंत्री ने बताया नहीं लेकिन कई दूसरे स्रोत से आई खबरों से पता चलता है कि बट्टे खाते में डाली गई ज्यादातर रकम बड़ी कंपनियों और बड़े कारोबारियों की है। किसानों, छोटे कारोबारियों, एमएसएमई सेक्टर के कारोबारियों आदि के कर्ज की रकम आमतौर पर बट्टे खाते में नहीं डाली जाती है। अगर इनको कर्ज से राहत देनी होती है तो बड़े गाजे-बाजे के साथ उसका ऐलान होता है और राजनीतिक लाभ लिया जाता है।

सरकारी बैंकों की इतनी बड़ी रकम राइट ऑफ करने के बावजूद अब भी 12 सरकारी बैंकों की 4.58 लाख करोड़ रुपए की रकम एनपीए है। इस बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने एक नया सरकुलर जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि बैंक विलफुल डिफॉल्टर्स यानी जान-बूझकर कर्ज नहीं चुकाने वालों के साथ भी समझौता कर सकते हैं। ऐसा व्यक्ति, जिसने किसी बैंक से कर्ज लिया है और कर्ज चुकाने की स्थिति में होने के बावजूद कर्ज नहीं चुकाए उसे विलफुल डिफॉल्टर कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति या ऐसी किसी ईकाई से बैंकों को क्यों समझौता वार्ता करनी चाहिए? अगर वह व्यक्ति या ईकाई दिवालिया नहीं हुए हैं और कर्ज लौटाने की स्थिति में हैं तो उनसे पूरे कर्ज की वसूली करने की बजाय उनसे समझौता करने या कम पैसे की वसूली का क्या तर्क हो सकता है, सिवाए इसके कि भारत का केंद्रीय बैंक उनके ऊपर मेहरबानी दिखाना चाह रहा है?

सोचें, एक तरफ किसानों के कर्ज नहीं चुका पाने की वजह से उनकी जमीनों की कुर्की हो रही है और दूसरी ओर कर्ज चुकाने में सक्षम लोगों के साथ समझौता करने का नियम बन रहा है? पिछले दिनों राजस्थान सरकार ने विधानसभा में बताया कि कर्ज नहीं चुका पाने की वजह से पिछले चार साल में 19 हजार से ज्यादा किसानों की जमीन की कुर्की हुई है। उससे थोड़े दिन पहले अप्रैल में मध्य प्रदेश के खरगौन से एक खबर आई थी, जिसमें बताया गया था कि एक किसान ने अपनी छह एकड़ जमीन के ऊपर नर्मदा झाबुआ ग्रामीण बैंक से कर्ज लिया था। एक लाख 63 हजार रुपए के कर्ज में से उसने डेढ़ लाख रुपए लौटा दिए थे लेकिन सिर्फ 13 हजार रुपए के लिए बैंक कर्मचारी उस किसान की जमीन की कुर्की करने पहुंचे। हैरान करने वाली बात यह थी कि बैंक कर्मचारी बैंड बाजे के साथ उस किसान के घर गए और जबरदस्ती उससे जमीन के कागज पर अंगूठा लगवाया। राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ ने इस घटना पर विरोध दर्ज कराया था। कुछ दिन पहले ही झारखंड में एक किसान से कर्ज वसूली करने पहुंचे एक वित्तीय संस्था के कर्मचारियों की ज्यादती की वजह से किसान की गर्भवती बेटी की मौत हो गई थी। एक तरफ छोटे किसानों के साथ बैंकों का ऐसा बरताव है और दूसरी ओर भारत का केंद्रीय बैंक विलफुल डिफॉल्टर्स के ऊपर मेहरबानी दिखा रहा है!

रिजर्व बैंक का सरकुलर हैरान करने वाला है लेकिन उससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि पिछले दो साल में विलफुल डिफॉल्टर्स की संख्या में 41 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। क्या विलफुल डिफॉल्टर्स को अंदाजा था कि देश का केंद्रीय बैंक उन पर मेहरबानी दिखा सकता है? भारत में कुल विलफुल डिफॉल्टर्स की संख्या बढ़ कर 16 हजार से ज्यादा हो गई है, जिनके ऊपर तीन लाख 46 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा बकाया है। रिजर्व बैंक के सरकुलर के मुताबिक भारत के सरकारी बैंक जान-बूझकर कर्ज नहीं लौटाने वाले इन लोगों के साथ समझौता करके औने-पौने में कर्ज सेटलमेंट का फैसला कर सकते हैं। इतना ही नहीं ऐसे डिफॉल्टर्स के लिए एक साल का कूलिंग ऑफ पीरियड भी कर दिया गया है। यानी जान-बूझकर कर्ज नहीं लौटाने वाले जिन डिफॉल्टर्स के साथ बैंकों का समझौता होगा वे समझौते के एक साल बाद ही नए कर्ज के लिए आवेदन कर पाएंगे। पहले ऐसे डिफॉल्टर्स को कोई भी बैंक दोबारा कर्ज नहीं देता था। लेकिन अब एक साल बाद वे फिर कर्ज ले सकेंगे। सोचें, किसी भी देश का केंद्रीय बैंक आम आदमी के पैसे के ऐसे दुरुपयोग का मनमाना फैसला कैसे कर सकता है?

भारतीय रिजर्व बैंक के इस सरकुलर का एक मतलब यह भी है कि जितने कारोबारियों ने देश के बैंकों को चूना लगाया और बकाया पैसा लौटाने की बजाय देश छोड़ कर चले गए उन सबके साथ बैंकों का समझौता हो सकता है। वे अपने बकाया कर्ज को औने पौने में सेटल कर सकते हैं। यह स्पष्ट रूप से आम आदमी के खून पसीने की कमाई से लुटेरों की जेब भरने की स्कीम है। यह एक तथ्य है कि भारत के बैंकों की कमाई बढ़ रही है और पहली बार वित्त वर्ष 2022-23 में सरकारी बैंकों की कमाई एक लाख करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गई है। ब्याज से बैंकों को होने वाली कमाई में 35 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। ऊपर से सभी बैंकों ने ग्राहकों के ऊपर दस तरह के शुल्क लगाए हैं। हर छोटी बड़ी सेवा के लिए शुल्क लगा दिया गया है, जिससे बैंकों की कमाई में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। न्यूनतम बैलेंस नहीं मेंटेन कर पाने वाले गरीब ग्राहकों से हजारों करोड़ रुपए की कमाई बैंकों ने की है और वह कमाई जान-बूझकर कर्ज नहीं लौटाने वालों पर लुटाए जाने की तैयारी हो गई है।

जब रिजर्व बैंक ने यह सरकुलर जारी किया तो बैंक संघों और कर्मचारियों ने इसका विरोध किया। ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कन्फेडरेशन और ऑल इंडिया बैंक एम्पलाई एसोसिएशन ने इस सरकुलर का विरोध किया है। लेकिन रिजर्व बैंक के ऊपर इसका कोई असर नहीं हुआ है। वह अपने सरकुलर पर कायम है। कायदे से इस तरह की कोई भी पहल सबसे पहले किसानों के लिए होनी चाहिए और उसके बाद एमएसएमई सेक्टर के छोटे कारोबारियों के लिए। इसके साथ ही जितने भी बैंक, नॉन बैंकिंग वित्तीय कंपनियां यानी एनबीएफसी और माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस यानी एमएफआई हैं उनके ऊपर सख्ती होनी चाहिए कि वसूली के नाम पर उनके कर्मचारी या भाड़े के गुंडे गरीबों, किसानों, मजदूरों और छोटे कारोबारियों पर ज्यादती न करें।

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