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खुद चुनाव आयोग में सुधार जरूरी

अजीत द्विवेदी
इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि देश में बड़े चुनाव सुधारों की जरूरत है। इसलिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को जो प्रस्ताव भेजे हैं, उनका स्वागत होना चाहिए। आयोग ने कई अहम सुधारों की जरूरत बताई है। जैसे एक व्यक्ति के एक सीट से ही चुनाव लडऩे का सुझाव बहुत अच्छा है। कई बार चुनाव हारने की जोखिम के कारण और कई बार राजनीतिक मैसेजिंग के लिए नेता एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ते हैं। उनके दोनों सीटों से जीत जाने के बाद एक सीट खाली होती है, जिस पर उपचुनाव कराना होता है। इस तरह उपचुनाव के कई नुकसान हैं। चुनाव कराने में जो खर्च होता है वह अपनी जगह है लेकिन संबंधित विधानसभा या लोकसभा सीट पर कई महीनों तक अनिश्चितता बनी रहती है और चुनाव चल रहे होते हैं। चुनाव आयोग ने प्रस्ताव दिया है कि एक नेता के दो सीटों से लडऩे पर रोक लगे या उपचुनाव की स्थिति आने पर उससे भारी जुर्माना लिया जाए।

इस तरह का प्रस्ताव पहले भी आ चुका है। 2004 में यह प्रस्ताव आया था तब उपचुनाव होने की स्थिति में संबंधित नेता पर पांच लाख रुपए का जुर्माना लगाने का प्रस्ताव था। लेकिन जुर्माना लगाना या जुर्माने की रकम बढ़ाना कोई उपाय नहीं है क्योंकि मामला सिर्फ खर्च का नहीं है। इससे बड़े सवाल जुड़े हैं। किसी भी नेता के अपने निजी लाभ-हानि की वजह से उपचुनाव की नौबत ही क्यों आनी चाहिए? क्यों किसी खास इलाके के लोग इसकी वजह से पैदा होने वाली दुश्वारियां झेलें? एक सवाल यह भी है जो अक्सर उठाया जाता है कि जब मतदाता दो जगह वोट नहीं कर सकता है तो कोई नेता कैसे दो जगह से लड़ सकता है? इसलिए इस नियम में बदलाव जरूरी है। पहले 1996 में इसमें बदलाव हुआ था। उस समय तक एक नेता कई सीटों से लड़ सकता था। आजादी के बाद से ही ऐसा चल रहा था तभी अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने जीवन का पहला लोकसभा चुनाव तीन सीटों से लड़ा था। वे 1957 में मथुरा, लखनऊ और बलरामपुर तीन जगहों से लड़े थे और बलरामपुर से जीते थे। 1996 में इस नियम को बदल दिया गया। नए नियम के मुताबिक कोई भी नेता एक साथ दो से ज्यादा सीटों से नहीं लड़ सकता है।

नेताओं का दो सीटों से लडऩा बहुत कॉमन प्रैक्टिस है। पिछले यानी 2019 के चुनाव में राहुल गांधी उत्तर प्रदेश की अमेठी और केरल की वायनाड सीट से लड़े थे। उससे पहले यानी 2014 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश की वाराणसी और गुजरात की वड़ोदरा सीट से चुनाव लड़ा था और दोनों सीटों से जीते थे। बाद में उन्होंने वड़ोदरा सीट से इस्तीफा दे दिया था। इसलिए चुनाव आयोग को निश्चित रूप से यह सुधार कराना चाहिए, जिससे एक नेता के दो सीटों से लडऩे पर रोक लगे। लेकिन इसके साथ ही और भी कारणों पर ध्यान देना चाहिए, जिनसे उपचुनाव की नौबत आती है। अभी उत्तर प्रदेश की दो और पंजाब की एक लोकसभा सीट पर उपचुनाव हो रहा है। उत्तर प्रदेश के दोनों सांसदों ने इसलिए इस्तीफा दे दिया कि वे विधायक हो गए और पंजाब की संगरूर सीट के सांसद भगवंत मान ने इसलिए इस्तीफ दे दिया क्योंकि वे मुख्यमंत्री हो गए हैं और उनको विधानसभा का चुनाव लडऩा है। यह भी बहुत कॉमन प्रैक्टिस है कि सांसद विधानसभा का चुनाव लड़ें या विधायक लोकसभा का चुनाव लड़ें। इससे भी उपचुनाव की नौबत आती है।

बहरहाल, उपचुनाव रोकने के लिए चुनाव आयोग की ओर से दिया गया सुझाव अच्छा है लेकिन यह जरूरी चुनाव सुधारों का एक छोटा सा हिस्सा है। आयोग को कई अहम सुधार करने हैं। बोगस वोटिंग रोकने और वोटिंग प्रतिशत बढ़ाने के उपाय करने हैं। दागी छवि के उम्मीदवारों को चुनाव लडऩे से रोकने या उनकी संख्या कम करने के उपाय करने हैं। चुनाव खर्च के नियमों का उल्लंघन कर हर चुनाव में होने वाले करोड़ों-करोड़ रुपए के चुनाव खर्च को रोकना है। भडक़ाऊ भाषणों और विभाजनकारी बयानों से चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों को स्थायी तौर पर रोकना है। पक्ष और विपक्ष के उम्मीदवारों के लिए लेवल प्लेइंग फील्ड यानी एक समान स्थितियां बनाने का काम करना है। जहां तक संभव हो एक साथ चुनाव कराने की दिशा में ठोस पहल करना है। इस तरह के कई चुनाव सुधार हैं, जो जरूरी हैं और जिनके लिए चुनाव आयोग को पहल करनी चाहिए।

परंतु उससे पहले ज्यादा जरूरी है कि चुनाव आयोग में सुधार किया जाए। चुनाव आयोग ने खुद भी कई बार कहा है कि उसके पास कोई खास अधिकार नहीं हैं। आयोग ने अदालतों में भी यह बात कही है। कम अधिकार होने की वजह से वह पार्टियों की मनमानी नहीं रोक पाती है। आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में भी उसके पास किसी कड़ी कार्रवाई का अधिकार नहीं है। चुनाव आयोग ने पिछले दिनों यह भी कहा कि उसके पास पार्टियों की मान्यता खत्म करने का अधिकार नहीं है। सवाल है कि पार्टियों की मान्यता खत्म करने या आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले की उम्मीदवारी खत्म करने का अधिकार आयोग को क्यों चाहिए? आयोग के पास जितने अधिकार हैं, उनका भी तटस्थ और निष्पक्ष होकर इस्तेमाल किया जाए तो गड़बडिय़ों पर प्रभावी रोक लगाई जा सकती है। आखिर जिस समय टीएन शेषन चुनाव आयुक्त बने थे उस समय तो आयोग के पास और भी कम अधिकार थे। लेकिन शेषन ने उस सीमित अधिकार का इस्तेमाल करके ही बोगस वोटिंग और बूथ कैप्चरिंग जैसी घटनाओं पर प्रभावी रोक लगाई थी। अपने सीमित अधिकारों का इस्तेमाल करके ही मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने कई सुधार कराए थे।

अगर चुनाव आयुक्त चाहें तो चुनाव आयोग के सीमित अधिकारों का ही प्रभावी इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वे तटस्थ और निष्पक्ष रहें। वे वस्तुनिष्ठ तरीके से कार्रवाई करें। यह नहीं हो सकता है कि प्रधानमंत्री के खिलाफ लगे आचार संहिता के उल्लंघन के  मामलों में अलग कार्रवाई हो और विपक्षी नेताओं पर लगे आरोपों के मामले में अलग ढंग से कार्रवाई हो। निश्चित रूप से चुनाव आयोग को कुछ और अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन उससे ज्यादा जरूरी यह है कि आयोग को निष्पक्ष बनाया जाए। चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था के तौर पर काम करे न कि केंद्र सरकार के एक विभाग की तरह। ध्यान रहे पिछले कुछ सालों से आयोग पर सत्तारूढ़ दल के हिसाब से चुनाव की तारीखें तय करने, उसके हिसाब से चुनाव का शिड्यूल तैयार करने और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के खिलाफ मिलने वाली शिकायतों पर कार्रवाई नहीं करने के आरोप लगे हैं। चुनाव के दौरान केंद्रीय एजेंसियां विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई करती हैं और आयोग मूकदर्शक बना रहता है। इसलिए अधिकारों की मांग से पहले खुद चुनाव आयोग में सुधार की जरूरत है। आयोग अपने को बदले और वस्तुनिष्ठ तरीके से काम करे तो कई समस्याएं उतने से भी खत्म हो जाएंगी।

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