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ब्लॉग चीन के नये भूमि कानून से उपजे सवाल

रघु ठाकुर

चीन के नये भूमि कानून ने जिसे चीन के नेशनल पीपुल्स कान्फ्रेन्स ने 23 अक्टूबर 21 को पारित किया है। इससे न केवल भारत को बल्कि दुनिया को नये प्रकार के तनाव और चिन्ताओं में डाल दिया है। चीन के जितने भी पड़ोसी देश है उनके साथ केवल नेपाल को छोडक़र सभी से चीन का सीमा को लेकर विवाद है। चीन निरंतर अपने पुराने दावों को किसी न किसी रूप में दोहराता रहा है। ताइवान को चीन अपना हिस्सा मानता है। 1949 में चीन की क्रांति जिसके बाद माओ चीन के शासन के मुखिया बने उसके पहले जो इलाके कभी पुराने लम्बे समय में चीन के साथ रहे हैं, उन्हें वह अपना हिस्सा बताता है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जमाने में बहुत से ऐसे इलाके थे, जो बाद में जब अंग्रेजों ने उन्हें आजाद किया वे या तो अलग देश के रूप में रहे या किसी अन्य देश के क्षेत्रों के रूप में शामिल हुये।
1962 में चीन ने जिस भारत की भूमि को सैन्य हमले के बाद अपने कब्जे में ले लिया था और जो कि वास्तव में 40,000 से 60,000 हज़ार वर्ग किलोमीटर के लगभग है उसके अलावा भी चीन लद्दाख, भूटान और अरूणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताता रहा है। भारत और चीन के बीच में अभी तक जो सीमा विवाद था वह मुख्यत: 1962 के चीनी हमले के द्वारा चीन द्वारा कब्जाई हुई भारतीय भूमि को लेकर था। परन्तु लद्दाख अरूणाचल जो भारत के हिस्से हैं उन पर भी चीन अपने नक्शों में दावा कर रहा है, तथा जब कभी भारत के संवैधानिक मुखियों ने जैसे कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या रक्षामंत्री आदि ने अरूणाचल की यात्रा की तो चीन ने सदैव उन यात्राओं का औपचारिक विरोध यह कह कर किया कि यह चीन के हिस्से हैं। इनमें बगैर चीन की अनुमति के आने का अधिकार भारतीय शासकों को नहीं है, अरूणाचल प्रदेश हज़ारों साल के इतिहास से ही भारत का हिस्सा रहा है और डॉ. लोहिया तो उसे ‘‘उर्वशीयम’’ कहते थे क्योंकि वह उर्वशी का इलाका था। लेाहिया ने तो अरूणाचल में जाकर भारतीय प्रतिबंधात्मक कानून को तोडक़र गिरफ्तारी दी थी और बगैर भारत सरकार से अनुमति लिये अरूणाचल में प्रवेश किया था, तथा कहा था कि, अपने ही देश में जाने के लिये सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं है। और आज जब चीन अरूणाचल पर अपना दावा ठोकता है तब लोहिया की बात की गहराई व निहतार्थ समझ में आता हैं। लोहिया ने अरूणाचल की यात्रा बगैर सरकार की अनुमति के करके न केवल भारत सरकार के प्रतिबंध को तोड़ा था बल्कि चीन के तथाकथित दावे का खंडन भी किया था। पूर्वी लद्दाख जो भारत का हिस्सा है, उस पर भी चीन अपना अधिकार बता रहा है। भारत और चीन के बीच अरूणाचल से लेकर लद्दाख तक लगभग 3488 कि.मी. लम्बी भारतीय भूमि को लेकर यह विवाद है। याने चीन लगभग 60,000 वर्ग कि.मी. जमीन जो भारतीय भूमि पर बलात कब्जा कर अपना दावा जताता रहा है, और इसी प्रकार भूटान को भी अपना हिस्सा बताता है। अरूणाचल, भूटान, और पूर्वी लद्दाख को वह नस्लीय आधार पर अपना हिस्सा बताता, है याने तात्पर्य मंगोल प्रजाति के आधार पर वह अपना दावा बताता है। अरूणाचल के सुबन सिटी जिले में चीन ने एक पूरा गाँव ही भारत की कब्जाई जमीन पर बना लिया है। पेंटागन ने भी इसकी पुष्टि की है। 1959 में चीन ने इस जमीन पर कब्जा किया था जिसे लोगजू कहा जाता है।

हालांकि अरूणाचल, लद्दाख और भूटान की आबादी में भी मंगोल प्रजाति के समग्र लक्षण नहीं मिलते है। तिब्बत को भी चीन मंगोल प्रजाति का बताता है। अगर बारीकी से तुलना व अध्ययन किया जाये तो इन इलाकों के लोग एक मिश्रित नस्ल के लोग है और उनकी बनावट अपने क्षेत्रों, भौगोलिक और जलवायु के आधार पर स्थानीयता से प्रभावित है। जिन्हें ‘‘भारतीय हिमालय प्रजाति’’ के रूप में पहचाना जा सकता है। जिनके लंबाई, रंग भारतीय है, केवल नाक व आँख मंगोल जैसी है। चीन का अन्य 12 पड़ोसी देशों से भी सीमा विवाद रहा है। जिसे चीन ने दबाव बनाकर और उनके कुछ इलाकों पर बेजा कब्जा कर उन्हें बलपूर्वक हथिया कर उनके साथ समझौता किया है। अब चीन ताइवान को दबाकर अपने कब्जे में लेना चाहता है। हाँलाकि ताइवान भी इसका प्रतिकार करने को तैयार है। ताइवान ने भी चीन के संभावित हमले की आशंका को देखकर अपनी सैन्य तैयारी शुरू की है। हाल ही में चीन ने ताइवान से सटे हुये प्रदेश के अपने नागरिकों से दीर्घकाल के लिये राशन व जरूरत का सामान इक_ा करने को कहा है। जिसका एक संकेत दुनिया में यह निकाला जा रहा है कि चीन ताइवान के साथ युद्ध की तैयारी कर रहा है, और संभावित युद्ध व हमले से जो परिस्थितियाँ पैदा हो सकती है, उनसे बचाने के लिये अपने चीनी देशवासियों के लिये मानसिक व भौतिक रूप से तैयार कर रहा है। ताइवान में भले ही ताईवान की अपनी सैन्य क्षमता कम हो परन्तु दुनिया के अन्य देशों का हस्तक्षेप एक बड़े युद्ध का रूप ले सकता है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडन ने तो स्पष्ट घोषणा की है कि इस स्थिति में अमेरिका ताइवान के साथ खड़ा होगा और अगर युद्ध की आवश्यकता हुई तो वह भी करेगा।

अमेरिका और चीन के मध्य विश्व शक्ति और अपने अपने प्रभाव क्षेत्र को फैलाने की जो प्रतिस्पर्धा है वह अब टकराव की स्थिति में आ गई है। अमेरिका चीन की बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति और वैश्विक हस्तक्षेप से चिंतित है और उसे रोकने के लिये कटिबद्ध नजऱ आता है, अतीत में भी अमेरिका अपने आर्थिक, सामाजिक और राष्ट्रीय हितों के लिये वियतनाम से लेकर ईराक या अफगानिस्तान तक सैन्य हस्तक्षेप करता रहा है, और केवल उनकी अपनी गोरी नस्ल के विवादों के बारे में भले ही वह अलग प्रकार की नीति अख्तियार करता हो पर गैर गौरी नस्लों के क्षेत्रों में उसने हर  प्रकार की सामरिक शक्ति का इस्तेमाल किया है, जैसे जापान से लेकर ईराक, अफगानिस्तान तक। इन्हें बीसवीं सदी में दुनिया देख चुकी है। चुंकि ताइवान और चीन दोनों मंगोल नस्ल के हैं, गोरी चमड़ी वाले नस्ल के नहीं है, अत: हो सकता है अमेरिका इसमें गंभीरता से युद्ध के रूप में भी हस्तक्षेप करे। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने तो स्पष्ट घोषणा की है कि अगर ताईवान पर चीन का हमला हुआ तो अमेरिका ताईवान के साथ मिलकर युद्ध लड़ेगा। क्वार्ड के नाम से जो एक नया वैश्विक समूह संगठित हुआ है, जिसमें भारत भी शामिल हुआ है, वह भी चीन के साम्राज्यवादी, विस्तारवादी रवैये का मुकाबला करने के लिये एक नये वैश्विक मंच के रूप में अस्तित्व में आया है, परन्तु ताइवान फिर एक बार विश्व युद्ध का मुद्दा व केन्द्र बन सकता है जो भारत व एशिया के लिये अनेक रूप से प्रभावित करेगा। अमेरिका की चीन से दूरी हज़ारों कि.मी. की है, परन्तु चीन व ताइवान तथा चीन व भारत की भूमि सटी हुई है युद्ध के प्रभाव इसी भूमि पर ज्यादा पड़ सकते हैं।

चीन के विस्तारवादी रवैये के बारे में तो डॉ. लोहिया ने तभी आगाह करना शुरू कर दिया था जब हिन्दुस्तान और चीन के प्रधानमंत्री स्व. नेहरू व स्व. चाऊ एन लाई पंचशील के भजन गा रहे थे। आजकल कुछ बुद्धिजीवी मित्रों ने पंचशील के पाँच बिन्दुओं की व्याख्या कर पंचशील समझौते को सही ठहराने का नया उपक्रम शुरू किया है। कांग्रेस और नेहरूवादी तथा कुछ वामपंथी जमातों का समूह इस अभियान में सक्रिय है, परन्तु वे पंचशील की व्याख्या के नाम पर मूल मुद्दे से भटकाना चाहते हैं। पंचशील के पाँच सिद्धान्तों की शाब्दिक व्याख्या अवश्य भिन्न हो सकती है जो निरस्तीकरण, शाँति, शील आदि शब्दों को जुमलों या पाखंड के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। परन्तु मुद्दा यह था कि क्या चीन जो समझौता कर रहा था वह इन सिद्धान्तों के प्रति ईमानदार था? या यह सिद्धान्त उसके लिये धोखा देने के लिये और अपने शत्रु को भ्रम में रखने के तरीके थे। दरअसल वह भारत को सुप्त रखना चाहता था ताकि भारत उसके संभावित हमले के मुकाबले के लिये आवश्यक सैनिक तैयारी नहीं कर सके। इसलिये समझौते के दो वर्ष के बाद तक चीन अपनी गुप चुप तैयारी करता रहा उसने 1962 में भारत पर हमला कर दिया। भारत की हज़ारों कि.मी. भूमि को कब्जे में ले लिया जो अभी तक उसके कब्जे में है। चीन के द्वारा 1962 में कब्जाई हुई सीमा का विवाद अभी भारत हल नहीं कर सका और इसी बीच वर्ष 2020-21 में उसने डोकलाम, गलवान घाटी में पुन: सैन्य शक्ति का प्रयोग कर अपनी सीमा को कई कि.मी. तक आगे बढ़ा लिया।

1980 के बाद जब अमेरिका ने चीन के साथ व्यापारिक रिश्ते शुरू किये तो भारत के पिछलग्गू शासकों ने चीन के साथ दोस्ती के प्रयास शुरू कर दिये। यह कैसे भुलाया जा सकता है कि 1978 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जो संघ व जनसंघ के मान्य नेता थे, व देश के विदेश मंत्री भी थे, ने बगैर किसी सीमाई हल के लगभग 16 वर्ष के बाद अमेरिका के इशारे पर भारत की तरफ से पहली चीन यात्रा की थी। हांलाकि उन्हें उसी समय चीन के द्वारा वियतनाम पर हमले के बाद रातों रात प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई ने वापिस बुला लिया था। उसके लगभग 8 वर्ष के बाद प्रधानमंत्री के रूप में स्व. राजीव गाँधी पहले प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने चीन की यात्रा की थी। यह आश्चर्यजनक है कि, दोनों देशभक्तों ने अपने बड़े पद पर रहते हुये अपने राष्ट्रीय दायित्व का निर्वहन नहीं किया था, और इन दोनों के पीछे अमेरिका का इशारा था। उस समय याने 70 के दशक में देश को यह समझाने व शांत करने का प्रयास हुआ कि चीन से लाईन ऑफ कन्ट्रोल पर बात करना चाहिये। लाईन ऑफ कन्ट्रोल की नीति बुनियादी तौर पर गलत है, क्योंकि वह बलात कब्जाई जमीन को वैधता प्रदान करती है और अब तो एक और नया शब्द गढ़ा गया है, लाईन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल। अगर इसे सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया जाता है, तो इसका मतलब यह हुआ कि 1962 में चीन ने जो कब्जा किया था वह तो चीन की हो ही जायेगी साथ ही गलवान घाटी व डोकलाम में जो चीन ने अपना विस्तार किया है, वह भी जायज हो जायेगा।

यह भूलना नहीं चाहिये कि चीन इसके बाद भी रूकने वाला नहीं है और हाल ही में चीन ने जो नया भूमि सीमा कानून पारित किया है और जिस कानून में अरूणाचल, पूर्वी लद्दाख आदि को अपना हिस्सा बताया है, यह उसके उसी विस्तारवाद का हिस्सा है। भारत की ओर से कूटनीतिक प्रतिरोध किये जाने पर चीन ने 27 अक्टूबर को सफाई देते हुये कहा है कि उसका नया भूमि सीमा कानून चीन और भारत के बीच मौजूदा सीमा संधियों के कार्यावन्यन को प्रभावित नहीं करेगा। इस सफाई का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि भारत व चीन के बीच में जितने भी समझौते हुये है वे निर्गुण है। पंचशील का समझौता हो या अन्य कोई समझौता हो वह यही तो कहते है कि, हम परस्पर दोनों की सीमा का उल्लंघन नहीं करेंगे तथा सीमा विवाद को शाँतिपूर्वक ढंग से हल करेंगे। परन्तु यह नया कानून जो चीन ने पारित किया है वह तो यह कहता है कि ये अरूणाचल व लद्दाख के इलाके भारत के नहीं बल्कि चीन के हैं। और फिर कल चीन कहेगा कि यह हमारी भूमि है इसे भारत को चीन को सौंपना चाहिये। भूटान को भी चीन अपना मानता है और हाल ही में भूटान में चीन की दखल व प्रभाव बड़ा है। नेपाल में चीन का प्रभाव आज भी है और भले ही साम्यवादी पार्टी आपस में सश्रा की महत्वाकांक्षा में बँट गई हो परन्तु चीन के साथ उनके सभी गुटों के लगभग समान रिश्ते हैं, और उनका वास्तविक मार्गदर्शक चीन है। इन प्रदेशों की भूमि चीन से सटी है। यह छोटे-छोटे प्रदेश है जिनके पास न ज्यादा आर्थिक क्षमता है, और न चीन के मुकाबले की सामरिक या जन शक्ति है। इन्हें भी किसी दिन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से कब्जाने का प्रयास चीन करेगा इसे निराधार आशंका नहीं माना जा सकता है।

भारत के सश्राधीशों को अभी से अपनी कूटनीतिक और सामरिक तैयारियाँ करना चाहिये ताकि भविष्य में आने वाली चुनौतियों का मुकाबला किया जा सके। भारत को स्पष्ट तौर पर यह घोषणा करना चाहिये कि हम एल.ओ.सी. या एल.ए.सी. के सिद्धान्त को नहीं मानेंगे। हम उस मैक मोहन को ही भारत व चीन की सीमा रेखा मानेंगे, जिसे ब्रिटेन की साम्राज्यवादी हुकुमत ने सीमा रेखा बताया था और जो भारत व चीन की वास्तविक सीमा रेखा है। परन्तु ऐसा साहस अभी तक भारत की किसी सरकार ने नहीं किया है।

हमारे देश में तो एक समूह ऐसा है जो भीतर से चीन का आर्थिक सहभागी है और ऊपर से विद्रोही है। जब कभी चीन की ओर से कोई हमला या विस्तार होता है तो हमारी देश के कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी ताकतें मीडिया के माध्यम से चीन के माल के बहिष्कार का दिखावे का हल्ला शुरू कर देते हैं। जब कि चीन के माल को यही लोग मंगाते हैं व बेचते हैं। गलवान घाटी की घटना के बाद, वुहान से कोरोना के फैलने के आरोप के बाद भारत के व्यापार जगत के मित्रों और इन तथाकथित राष्ट्रवादियों के चीनी माल के बहिष्कार के अरण्य रोदन के बाद वास्तविक स्थिति क्या है? सितम्बर माह में चीन ने भारत के साथ 100 अरब डालर का व्यापार किया है। याने एक बहुत बड़ी राशि भारत से मुनाफे के रूप में कमाई है। जो लोग चीनी माल के बहिष्कार का नारा दे रहे थे। गुलाम मीडिया में बड़े-बड़े समाचार अखबारों और चैनलों पर बयान दे रहे थे, आज कटु सत्य यह है कि, उनकी दुकानों में ही चीनी माल भरा पड़ा है। और चीन भारत से भारी मुनाफा कमा रहा है। कोरोना के आने के बाद देश की बहादुर सरकार, बहादुर गृहमंत्री ने कई चीनी एप्स पर प्रतिबंध लगाया था। परन्तु जमीनी सत्य यह हे कि वह सभी चीनी एप्स भारत में यथावत ही नहीं बल्कि पहले से कई गुना ज्यादा मात्रा में उपयोग किये जा रहे है।
मैं भारत सरकार से अपील करूॅगा कि:-
1. भारत सरकार संसद में कानून पारित करें और अपनी सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख करे तथा कहे कि हम एल.ओ.सी./एल.ए.सी. नहीं मानेंगे। हम मेकमोहन लाईन को ही सीमा मानेंगे।
2. भारत स्वत: और क्वाड के माध्यम से संकल्प करे, तथा खुलकर यह कहे कि तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं है। इसे आजाद करो। अगर आवश्यकता पड़े तो सामरिक शक्ति का इस्तेमाल की तैयारी व घोषणा करे।
3. भारत सरकार चीनी माल और उपभोक्ता सामग्री पर संपूर्ण प्रतिबंध की घोषणा करे तथा चीन के साथ किसी भी प्रकार के व्यापारिक सहभाग पर प्रतिबंध लगाये।
4. चीनी इस्पात से एकता की प्रतिमा स्थापित कर राष्ट्र की सीमाओं को नहीं बचाया जा सकता। राष्ट्र की सीमाओं को बचाना है तो भारतीय इस्पात से एकता प्रतिमा बनाना होगा और यही महात्मा गाँधी तथा सरदार के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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