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ईसाई समुदाय भारत का एक शक्ति-पुंज

केजे अल्फोंस आईएएस (सेवानिवृत्त)

न्यूयॉर्क टाइम्स में  को अरेस्ट्स, बीटिंग्स एंड सीक्रेट प्रेयर्स: इनसाइड द पर्सक्यूशन ऑफ इंडियाज क्रिश्चन (‘गिरफ्तारी, पिटाई और गुप्त प्रार्थनाएं: भारत के ईसाइयों के उत्पीडऩ की अंदरूनी बातें) शीर्षक से प्रकाशित लेख अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और भ्रामक है।
यह सर्वविदित है कि भारत दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। आज हमें विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने पर भी गर्व है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म, संघ और अन्य, भारत में जीवन के कुछ सुप्रसिद्ध सिद्धांत हैं। देश में करीब 80 फीसदी हिंदू हैं। मोटे तौर पर 15 प्रतिशत मुस्लिम और 2.3 प्रतिशत ईसाई हैं। आजादी के बाद से ईसाइयों का प्रतिशत स्थिर रहा है, इसलिए भारत की कुल जनसंख्या में वृद्धि होने के साथ उनकी कुल जनसंख्या में भी वृद्धि हुई है। भारतीयों के लिए धर्म, जीवन का एक तरीका है।
लेख के जवाब में रक्षात्मक या राजनीतिक अर्थ न देने की भावना के साथ तथा हर किसी के बहुमूल्य समय का सम्मान करते हुए, मैं लेख के केवल तीन भ्रामक दावों का वर्णन करता हूं:
ईसाई-विरोधी तथाकथित ‘निगरानी’ करने वाले लोग गांवों में घूम रहे हैं, चर्चों पर धावा बोल रहे हैं, ईसाई साहित्य को जला रहे हैं, स्कूलों पर हमला कर रहे हैं और पूजा करने वालों के साथ मार-पीट कर रहे हैं।

2014 में, सब कुछ बदल गया… 2014 के बाद से ईसाई-विरोधी व घृणा से प्रेरित अपराध दोगुने हो गए हैं।
कुछ साल पहले, राजधानी नई दिल्ली में कैथोलिक चर्चों में तोडफ़ोड़ के बाद, ईसाई नेताओं ने श्री मोदी से मदद की गुहार लगाई। दिसंबर, 2014 में प्रधानमंत्री आवास पर हुई एक महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेने वाले तीन पादरियों के अनुसार, उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी, उन्होंने उनका मज़ाक उड़ाया था और हमलों को रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की … बल्कि एक ‘डॉन’ की तरह काम किया।
उपरोक्त वर्णन इस तथ्य का आभास देते हैं कि ईसाइयों का बंदी-शिविर, वर्ग विशेष के लोगों की बस्ती आदि के जरिये बड़े पैमाने पर उत्पीडऩ किया जा रहा है। यह सच्चाई से इतना परे है कि यदि स्पष्ट तौर पर कहें तो हम पूरी तरह असमंजस में हैं एवं तथ्यों को सामने रखने के अलावा हमें कोई उपाय नहीं सूझ रहा है कि इस पर सटीक प्रतिक्रिया कैसे दें। ईसाई इस देश में सबसे ज्यादा स्कूल, कॉलेज, अनाथालय, वृद्धाश्रम और बेसहारा लोगों के लिए घरों का संचालन करते हैं। इन संस्थानों के कारण भारत में ईसाई धर्म एक शक्ति-पुंज है, भले ही भारत की आबादी में उनका हिस्सा केवल 2.3 प्रतिशत है। इन संस्थाओं का देश में बहुत बड़ा योगदान है। यदि वर्तमान सरकार एक व्यापक एजेंडे को लेकर चल रही है, तो वह है- गरीबों का कल्याण तथा विकास और ईसाइयों के लिए इन लक्ष्यों के साथ दृढ़ता से जुडऩा स्वाभाविक है। हां, छिटपुट घटनाएं हुई हैं। हम इन घटनाओं के प्रति आंखें नहीं मूंद सकते। अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।।

तीसरे दावे के संबंध में, मैं ईसाई नेताओं के प्रतिनिधिमंडल में था, जिसने सरकार बनने के कुछ महीने बाद, 2014 में क्रिसमस पर प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की थी। मैं उस मुलाकात के दौरान इस वजह से मौजूद था क्योंकि मैंने ही उस मुलाकात का प्रबंध किया था। वह बेहद सौहार्दपूर्ण थे, उन्होंने क्रिसमस केक काटा जिसे इस बड़े प्रतिनिधिमंडल में शामिल सभी लोगों को दिया गया। यह एक सच्चाई है कि हमने 2014 के चुनावों से पहले दिल्ली में चर्चों पर हुए हमले का मुद्दा उठाया था। चुनाव से कुछ हफ्ते पहले 11 चर्चों पर अंधेरे की आड़ में हमला किया गया था। मैंने सभी 11 चर्चों का दौरा किया था। राष्ट्रीय और वैश्विक मीडिया में व्यापक रूप से गलत रिपोर्ट की गई कि हमले के पीछे भाजपा के लोगों का हाथ था और अगर मोदी सत्ता में आए तो इस देश के सभी ईसाई संस्थानों का यही हाल होगा। जब हमने इस मुद्दे को उठाया तो प्रधानमंत्री ने स्पष्ट और जोरदार शब्दों में कहा कि अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी, चाहे वे किसी भी धार्मिक या राजनीतिक समूह से जुड़े हों। जांच से पता चला कि इनमें से किसी भी चर्च में तोडफ़ोड़ से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं था। जांच से पता चला कि अधिकांश आरोपियों का संबंध एक ऐसे नवोदित राजनीतिक दल से था जोकि खुद को भाजपा विरोधी बताने के साथ-साथ भाजपा का डर दिखाकर दिल्ली में अपना आधार स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। मैं हमलों के पीछे पार्टी का नाम नहीं लेना चाहता। धार्मिक सहिष्णुता एक गहरी लोकतांत्रिक मान्यता है, जिसे हम गंभीरता से लेते हैं और इसे राजनीतिक रूप नहीं दिया जाना चाहिए।

अल्पसंख्यक समूह पर किसी भी हमले की एक भी घटना हम सभी पर हमला है और यह अस्वीकार्य है। जब प्रधानमंत्री ने बिना हिचक के इन चरमपंथियों को अपराधी करार दिया और कहा कि उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह देश के साथ-साथ उनके धर्म का अपमान है। उन्होंने राज्य सरकारों को सख्त कार्रवाई करने के निर्देश दिए। ऐसी किसी भी घटना को बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
भारतीय सभ्यता का मूल सार-तत्व, जोकि अधिकांश पश्चिमी दर्शन से भी पुराना है, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यानी ‘समस्त मानवता एक है’ के विश्वास में निहित है। 2014 में प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव अभियान का नारा था – ‘सबका साथ, सबका विकास’। 16 फरवरी 2015 को दिल्ली के विज्ञान भवन में ईसाई नेताओं को संबोधित करते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, मेरी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि आस्था की पूर्ण स्वतंत्रता हो। हर किसी को बिना किसी जबरदस्ती या अनुचित प्रभाव के अपनी पसंद के धर्म को बनाये रखने या अपनाने का निर्विवाद अधिकार है। उन्होंने आगे कहा, मेरी सरकार किसी भी धार्मिक समूह, चाहे वह बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ा हो, को दूसरों के खिलाफ खुले तौर पर या गुप्त रूप से नफरत फैलाने की अनुमति नहीं देगी। मेरी सरकार सभी धर्मों को बराबर का सम्मान देने वाली सरकार होगी। भारत बुद्ध और गांधी की भूमि है। प्रत्येक भारतीय के डीएनए में सभी धर्मों के लिए बराबर का सम्मान होना चाहिए। हम किसी भी बहाने किसी भी धर्म के खिलाफ हिंसा को स्वीकार नहीं कर सकते और मैं इस किस्म की हिंसा की कड़ी निंदा करता हूं। मेरी सरकार इस संबंध में कड़ी कार्रवाई करेगी। 2014 की बैठक के बाद, मैं भारत के ईसाई धर्मगुरुओं (कार्डिनल) को कम से कम तीन बार प्रधानमंत्री के पास लेकर गया हूं। प्रधानमंत्री ने हर बार इस देश में ईसाइयों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।

भारत सही मायने में एक लोकतंत्र है और इसलिए सभी को अपने हिसाब से प्रधानमंत्री या उनके सत्तारूढ़ दल पर आरोप लगा सकने की स्वतंत्रता है। हालांकि, हम अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं विश्वासों का उल्लंघन करने से जुड़े किसी भी आरोप को गंभीरता से लेते हैं। हम अपना पक्ष रखने के लिए न्यूयॉर्क टाइम्स को धन्यवाद देते हैं। हमें खेद है कि उनकी कहानी भारत को चरमपंथ से व्याप्त एक देश के रूप में पेश करती है, जबकि 1.4 अरब लोगों के समृद्ध विविधता वाले इस देश में ये सब एक पैटर्न, जैसाकि वे बताते हैं, के बजाय छिटपुट घटनाएं ही हैं। हमें इस बात का भी खेद है कि यह कहानी संभवत: विशुद्ध रूप से राजनीतिक है। उदाहरण के लिए, उनका कहना है कि मध्य प्रदेश ने 2021 में एक धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किया। जबकि एक छोटे सी खोजबीन से यह आसानी से पता चल सकता था कि मूल विधेयक को 1968 में पेश किया गया था और पारित किया गया था। तब विपक्षी दल कांग्रेस सत्ता में थी। लेकिन हम  इसे दोबारा से एक राजनीतिक मुद्दे में नहीं बदलना चाहते, क्योंकि ये मानवाधिकारों से जुड़ी चिंताएं हैं। हम सिर्फ अपनी प्रिय मातृभूमि की समृद्ध धार्मिक विविधता को संरक्षित रखने की अपनी अखंड प्रतिबद्धता को दोहराना चाहते हैं।
[के. जे. अल्फोंस भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व सदस्य हैं और वर्तमान में भारतीय संसद के सदस्य हैं। वे 2017-19 के दौरान भारत सरकार में पर्यटन राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) थे]

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