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प्रकृति के लिए भी न्याय जरूरी

वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
आज जब विकास की आपाधापी में पर्यावरणीय नुकसानों से ‘करे कोई भरे कोई’ की स्थिति आ गई है तो पर्यावरणीय न्याय पाने की आवश्यकता महत्ती हो गई है। आज मानव के विकास का दुष्प्रभाव जैव विविधता पर भी पड़ रहा है। यह वैश्विक स्तर पर भी हो रहा है और स्थानीय स्तर पर भी। प्रकृति के प्रति आक्रामक होकर ही पिछले पांच दशकों में वैश्विक आर्थिक प्रगति पांच गुनी बढ़ी है। इस उपलब्धि के लिए पृथ्वी के 70 फीसद से ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का क्षमता से ज्यादा दोहन हुआ है।

धरती पर हर तीन सेकेंड में एक फुटबॉल के मैदान सा वनाच्छादन घट रहा है। विगत सौ सालों मे आधे वेटलैंड और समुद्रों में आधे से ज्यादा मूंगा की चट्टानें खोई जा चुकी हैं। सागरों में प्लास्टिक इतना पहुंच रहा है कि सागरों में 2050 तक मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक होने की आशंकाएं होने लगी हैं। आस पास देखें तो सुरंग कोई बना रहा है घर किन्हीं औरों के उजड़ रहे हैं। झील-नहरें लालच में आवासीय विस्तारों के लिए कोई पाट  रहा है पर महानगरों और गांवों में बाढ़ से नुकसान कोई झेल रहा है।

पर्यावरणीय न्याय का जिक्र करते हुए 75 वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के राष्ट्रीय संबोधन में यह  भी था कि-‘असमानता से भरी विश्व व्यवस्था में अधिक समानता तथा अन्यायपूर्ण परिस्थितियों में दृढ़तापूर्वक अधिक न्याय दिलाने के लिए न्याय की धारणा बहुत व्यापक हो गई है। इसमें आर्थिक और पर्यावरण से जुड़ा न्याय भी शामिल है। इस कारण आगे की राह बहुत आसान नहीं है।’

जनवरी 2021 में जारी यूएनइपी ग्लोबल क्लाइमेट लिटिगेशन रिपोर्ट 2020 के अनुसार भी आज आम जन जलवायु से संदॢभत स्वस्थ पर्यावरण के अपने अधिकार को लागू करवाने के लिए ज्यादा संख्या में अदालतों में पहुंच रहे हैं। मिस्र के शर्म अल-शेख कॉप – 27 में चले जलवायु सम्मेलन में भी मूल बात पर्यावरणीय न्याय पाने की ही थी। जिन गरीब देशों ने कार्बन उत्सर्जन से धरा को अनुपातिक रूप से लगभग ना के बराबर भार दिया है वो भी जलवायु दंश के दंड भुगत रहे हैं और दूसरी तरफ धींगामुश्ती करने वाला लगभग छुटट ही रहना चाहते हैं।

लॉस एंड डैमेज फाइनेंस का भी मुद्दा तभी तो उठा। बढ़ते कार्बन उत्सर्जन, बढ़ते तापक्रम से बवंडरी घातक तूफानों, बाढ़, भूस्खलनों और वनाग्नियों में जो वृद्धि हो रही है उसने पूरी मानव जाति को जोखिम में डाल दिया है। इनसे स्वास्थ्य, खाद्य, आजीविका, आवासीय सुरक्षा तो खतरे में आती ही है। 22 फरवरी 2021 को संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यावरणीय सभा को संबोधित करते हुए महासचिव अंतोनी गुतरेस ने जलवायु उथल-पुथल, जैव विविधता में लगातार कमी और प्रदूषण-महामारी के कारण विश्व के पर्यावरणीय  आपातकाल में होने की बात कही थी और इन समस्याओं के प्रकृति आधारित समाधान ढूंढने की अपील की थी, परंतु संयुक्त राष्ट्रसंघ के ही 27 मई 2021 को जारी एक अध्ययन के अनुसार इसमें दुनिया को 2030 तक आज के तिगुने और 2050 तक चौगुना निवेश करना होगा।

कुल मिलाकर आज से 2050 के बीच इन तीनों समस्याओं के समाधान में आठ खरब एक अरब अमेरिकी डॉलर की जरूरत होगी। समुद्रतल से 10 से 13 हजार फीट की ऊंचाइयों पर स्थित अल्पाइन चारागाह को बुग्याल कहते हैं। जमीन के भीतर कार्बन, नाइट्रोजन आदि के बहुत बड़ी मात्रा में भंडारण में व प्रदूषणों को रोकने में ये छलनी का भी काम करते हैं। क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु बदलाव के दंश को कम करने में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। कुछ देशों में प्रकृति एकांशों को अधिकार दिए गए हैं। वहां उन्हें अपने को ठीक करने का अधिकार है।

अमेरिका में भी प्रकृति के कतिपय अधिकारों को मान्यता दी गई है। न्यूजीलैंड, इक्वाडोर और कोलंबिया में भी नदियों को अधिकार देने के उल्लेख हुए हैं। नि:संदेह प्रकृति राहत कापालन करवाने के तौर-तरीकों को विकसित करने में समय लगेगा। हमारे देश में भी पहली बार नैनीताल उच्च न्यायालय ने नदी में अतिक्रमण हटाने की गुहार से संबंधित एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान 20 मार्च 2017 को गंगा यमुना को जीवित मानव जैसा माने जाने का आदेश दिया था, किंतु लगभग तत्काल ही तत्कालीन उत्तराखंड व केंद्र सरकार की जुगलबंदी में 7 जुलाई 2017 को सर्वोच्च अदालत में इस आदेश के विरुद्ध जाने के बाद कालांतर में यह आदेश रहा ही नहीं।

पर्यावरणीय स्थितियों को सुधारने और भौतिक विकास को भी सतत बनाने के लिए 2021 से 2030 तक के संयुक्त राष्ट्र संघ ईको सिस्टम रिस्टोरेशन के दशक मनाया जा रहा है। सतत विकास लक्ष्यों को पाने के लिए 2030 का ही साल आखिरी साल तय किया  गया है। वैज्ञानिकों के अनुसार यही वह साल भी है जो हमारे लिए संभवत: आखिरी मौका होगा विकास जनित जलवायु बदलाव का रूख पलटने का।

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